Thursday, August 20, 2009

सलवा जुड़ुम: कुछ कविताएँ


1.

अब वहाँ आकाश नीला नहीं है
न जंगल हरा
न नदियाँ साँवली
न धरती गोरी

बादशाह सलामत ने
खुरच लिए रंग सारे

अब वे
खाकी से रंगेंगे
पूरा कैनवास



2.

निचोड़े जा रहे हैं
हरे साँवले जंगल

जमा किया जा रहा है
विशालकाय गढ्ढे में
जीवन-रस

जिसमें
धोई जानी है
खाकी वर्दियाँ




3.

‘शिकारी आयेगा
दाना डालेगा
लोभ से फँसना नहीं’

यह गीत पंछी नहीं
बहेलिये गा रहे हैं

इरादे बिल्कुल साफ हैं
पंछी विहीन होना है
जंगल को ....
.... आकाश को


4.

बर्बरता, दानवता, पशुता,
दहशत, हैवानियत, क्रूरता
उत्पीड़न, अनाचार, नृशंसता
आदि-आदि भयावह शब्द सारे

दौड़ते-भागते आए
साँवले जंगल के मुहाने तक
वहीं खाकी वर्दी को देखा
और शरमा गये


5.

जंगलों के ऊपर छाया
यह काला विषैला धुँआ
धुँआ नहीं
बादशाह सलामत की काया की
छाया भर है

बेचैन हैं हुजूर बहादुर
कुछ ढूँढ रहे हैं
चप्पे-चप्पे पर है
उनकी नजर

कई नाम हैं
बादशाह सलामत के
इतिहास के पन्नों से लेकर
भविष्य की पुस्तकों तक
सैकड़ों-हजारों नाम

हम कोई भी एक
चुन सकते हैं ....
जैसे ईदी अमीन

अब हम उनकी परेशानी का सबब
ठीक-ठीक समझ सकते हैं

हुजूर की दीर्घतम काया से भी
दीर्घ, भीषण, तीव्र भूख ही
उनकी परेशानी बेचैनी है
और खाली पड़ा है फ्रिजर
एक कोना भी नहीं भरा है
ताजे नरगोश्त से


6.

बादशाह सलामत को
‘संस्कृति’ से बहुत प्यार है
प्यारे लगते हैं कवि, आलोचक
कथाकार, संस्कृतिकर्मी बुद्धिजीवी सारे
सम्मानों, पुरस्कारों, पदकों से लकदक

बहुत अच्छी लगती हैं
पद, गीत, कवित्त, चैपाईयाँ
दोहे, पहेलियाँ, मुकरियाँ, सवाईयाँ

छन्द का बंध बहुत भाता है
हुजूर बहादुर को

तुकों और तुकबन्दियों की तो
पूछिए मत
झूमने लगते हैं
दरबार और दरबारी

अब यहूदीवाद का तुक मिलाकर
देखिए
उसी वजन का काफिया
स्वराघात, मात्रा, छन्द, बन्ध, राग, लय
सब
फिर देखिए हुजूर बहादुर का रंग
उल्लास, उमंग

फड़फड़ाने लगती हैं
मूछें तड़पने लगती हैं
बाहों की मछलियाँ
पूरी काया में स्फुरण
उज्ज्वल भाल पर स्वेदकण

खुद व खुद आ जाती है तलवार
म्यान के बाहर
वही चमचमाती तलवार
आबदार!
आदिम रक्त पिपासु

अदेर किए कूच करती
चतुरंगी सेना
हाथी घोड़ा पालकी
जय कन्हैया लाल की

‘अन्य’ की तलाश में
युगों से जुटी गुप्तचर एजेंसियाँ

माटी के ढूँहों, खेतों के पार
साँवले जंगलों के बीच
माटी के गाँव हैं
जहाँ माटी के गीत गाते
माटी के बेटे साँवले, काले, कुरूप
यही हैं, यही हैं, गद्दार राष्ट्रद्रोही
पापी पातक ‘अन्य’

सर्वव्यापी ईश्वर ‘बाजार’ में
नहीं जिनकी आस्था
जिसकी पूजा-अर्चना-आराधन
से रहते है दूर
हिकारत से भरे पापी कृतघ्न

नया देवता नव्य ईश
साक्षात परम ब्रह्म
जिसके गोद में लहराता है
लुब्ध मध्यवर्ग का जन ज्वार
टीवी, फ्रिज, एयरकंडीशनर
वाशिंग मशीन, लैपटॉप, कार
फ्लैट, ब्रान्डेड कपड़े, ऐशो आराम
अपरम्पार
मीलों लम्बी जिसकी
चमचमाती लिस्ट के साथ
सोया यौन सुख में डूबा
अघाया मध्यवर्गीय धार
जिसके सित्कारों से
अश्लील हो गई हैं
दसों दिशाएँ
जिनमें कर रहा सौन्दर्य सन्धान
नया भगवान
जिसकी उँगलियों की डोर में
बँधी सारी पुतलियाँ

इन लहरों से दूर
सूखा असिंचित साँवला जंगल
बुदबुदाता गाता गुनगुनाता
साँप काटे का मंत्र
या प्रतिकार-प्रतिरोध का गीत
यही है, यही है गद्दार, राष्ट्रद्रोही
पापी पातक ‘अन्य’

हुलका कर, ललकार कर
घेर कर हाँक कर,
चिन्हित कर लेगी सेना
उतारेगी अन्तहीन गहरी काली सुरंग में
फिर पूरी तहजीब
और सलीके से
भरी जायेगी मिट्टी
रोपे जायेंगें सूर्ख गुलाब

जैसा सन् चैरासी में
बड़े पेड़ के गिरने से
धरती हिली खुली सुरंग
या दो हजार दो में
क्रिया के बराबर विपरीत
प्रतिक्रिया ठीक-ठीक वैसे ही
पहचाना गया है ‘अन्य’ को
सारी सावधानी और महीनी के साथ

हाइपर एक्टिव हैं
सम्मानों, पुरस्कारों, पदकों
से लकदक लदे अतिविनम्र
कविगण, आलोचक, कथाकार
संस्कृतिकर्मी बुद्धिजीवी सारे
शोक संदेशों, भाषणों,
प्रेस विज्ञप्तियों के प्रारूपण में
व्यस्त, अति व्यस्त,
पसीने से लथपथ
कई-कई पाठ कर चुके
बस आखिरी प्रारूप बाकी है।